तिलहन की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग कौन-कौन से हैं
तिल की फसल में लगने वाला गाल मक्खी रोग
यह एक कीट जनित रोग माना जाता है। इसके लगने से पौधे के तनों में सड़न होने लगती है। यह कीट इतना खतरनाक होता है, कि यह आहिस्ते-आहिस्ते संपूर्ण पेड़ को ही खा जाता है। इससे संरक्षण के लिए किसान भाई पेड़ पर मोनोक्रोटोफास का छिड़काव 15 से 20 दिन के अंतराल पर करते रहें।
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तिल फसल में लगने वाला पत्ती छेदक रोग
यह रोग लगने से तिल के पौधे की पत्तियों में छेद होने शुरू हो जाते हैं। इन कीटों का संक्रमण काफी ज्यादा होता है। इनका रंग हरा होता है, इन कीटों के शरीर पर हल्की हरी और सफेद रंग की धारियां बनी होती हैं। यदि इनका प्रबंधन समुचित समय पर नहीं किया गया तो यह बहुत ही कम वक्त में पूरे तिल की फसल को चौपट कर सकते हैं। इन कीटों से संरक्षण के लिए आप पौधों पर मोनोक्रोटोफास की दवा का छिड़काव भी कर सकते हैं।
तिल की फसल में लगने वाला फिलोड़ी रोग
फिलोड़ी का रोग पौधे के फूलों पर लगता है। इससे तिल के फूलों का रंग पीला पड़ना शुरू हो जाता है और समय के साथ यह झड़ने शुरू हो जाते हैं। इससे संरक्षण हेतु पौधों पर मैटासिस्टाक्स का छिड़काव किया जाता है।
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तिल की फसल में लगने वाला फली छेदक रोग
इन कीटों की मादाएं अंडे पौधों के कोमल हिस्सों जैसे कि पत्तियों और फूलों पर देती हैं। यह भूरे, काले, पीले, हरे, गुलाबी, संतरी तथा काले रंग के पैटर्न में विभिन्न प्रकार के होते हैं। यह कीट कोमल पत्तियों, फूलों एवं इनकी फलियों को खा जाते हैं। इनके संरक्षण के लिए पौधों पर क्यूनालफॉस नामक कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए।
इस रोग से संक्रमित पत्तियों पर संकेंद्रित वलय वाले छोटे, गोलाकार लाल-भूरे रंग के धब्बे बन जाते है।
इसके अलावा डंठल, तने और कैप्सूल पर गहरे भूरे रंग के घाव हो जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है पत्तियों झुलसना कर झड़ना शुरू हो जाती है। फलियों पर संक्रमण होने पर बीज सिकुड़े हुए बनते है और फलियां फटना शुरू हो जाती है।
जिस खेत में ये रोग आता हो उसमें कम से कम 2 साल तक फसलचक्र अपनायें।
इस रोग से बचाव के लिए बुवाई के लिए प्रभावित व स्वस्थ बीज का चयन करना चाहिये।
बुवाई से पहले बीज उपचार करना चाहिए जिसके लिये ट्राइकोडर्मा विरडी 5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपयोग करना चाहिये।
खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए मैंकोजेब की 400 ग्राम प्रति मात्रा की प्रति एकड़ स्प्रे करें।
2. फायलोडी रोग
इस रोग को फायलोडी रोग के नाम से भी जाना जाता है यह रोग माईकोप्लाज्मा के द्वारा होता है एवं इस रोग में पुष्प के विभिन्न भाग विकृत होकर पत्तियों के समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधों में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी-छोटी दिखाई देती हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है। ये रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में जैसिड द्वारा फैलाया जाता है।
रोग नियंत्रण के उपाय
सबसे पहले इस रोग वेक्टर को नियंत्रित करने के लिए, एनएसकेई @ 5% या नीम तेल @ 2% का छिड़काव करें जिससे की संक्रमित पौधे से रोग स्वस्थ पौधे में ना फैले और पैदावर हानि ना हो।
इमिडाक्लोप्रिड 600 एफएस @ 7.5 मि.ली./कि.ग्रा. की दर से बीज उपचार करें।
खड़ी फसल में रोग का संक्रमण दिखाई देने पर वेक्टर को नियंत्रण करे के लिए क्विनालफोस 25 ईसी 800 मिली/एकड़ या थियामेथोक्साम 25डब्ल्यूजी @ 40 ग्राम/एकड़ या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 40 मिली/एकड़ का छिड़काव करें।
तिल के साथ अरहर की खेती करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।
इस रोग के लक्षण सबसे पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते है। पत्तियों का पीला होकर गिरना इस रोग के प्रमुख लक्षण है। संक्रमित पौधे की जड़े पूरी तरह से गल जाती है और पौधे को आसानी से मिट्टी से निकाला जा सकता है। इस रोग से संक्रमित पौधों की फलियाँ समय से पहले खुल जाती हैं।
रोग नियंत्रण के उपाय
जिस खेत में रोग का अधिक प्रकोप होता हो उस खेत में तिल की फसल ना लगाए।
रोग से बचाव के लिए समय से फसल बुवाई करें।
खड़ी फसल में रोग को नियंत्रित करने के लिए कार्बेन्डाजिम 50 WP को 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से पौधे की जड़ो में डालें।
4.पाउडरी मिल्डयू
ये रोग कवक के द्वारा होता है इस रोग के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में पौधों की पत्तियों के ऊपरी सतह पर पाउडर जैसा सफेद चूर्ण दिखाई देता है। इस रोग का संक्रमण फसल में 45 दिन से लेकर फसल पकने तक होता है।
रोग नियंत्रण के उपाय
रोग के नियंत्रण के लिए wettable सल्फर 80 WP 500 ग्राम को प्रति एकड़ हर 15 दिनों में संक्रमित फसल में डालें। इसके आलावा इस रोग को नियंत्रित करने के लिए 10 किलोग्राम sulphur dust को प्रति एकड़ के हिसाब से में डालें।
5. फाइटोफ्थोरा अंगमारी
यह मुख्यतः फाइटोफ्थोरा पैरसिटिका नामक कवक से होता है सभी आयु के पौधों पर इसका हमला हो सकता है। इस रोग के लक्षण पौधों की पत्तियो एवं तनों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देते हैं ये धब्बे बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं तथा ये धब्बे बाद में काले रंग के हो जाते हैं। रोग ज्यादा फैलने से पौधा मर जाता है।
रोग से बचाव के लिए लगातार एक खेत में तिल की बुवाई ना करें।
खड़ी फसल में रोग दिखने पर रिडोमिल 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।
इस लेख में आपने तिल के प्रमुख रोगों और इनकी रोकथाम के बारे में जाना । मेरी खेती आपको खेतीबाड़ी और ट्रैक्टर मशीनरी से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी प्रोवाइड करवाती है। अगर आप खेतीबाड़ी से जुड़ी वीडियोस देखना चाहते हो तो हमारे यूट्यूब चैनल मेरी खेती पर जा के देख सकते है।